चोटी की पकड़–112

प्रभाकर को चाँदी की कुर्सी पर बैठालकर पास एक सोने के डंडेवाली गद्दीदार कुर्सी रख दी। 


प्रभाकर साधारण दृष्टि में बड़प्पन लिए हुए देखता रहा। मुन्ना रानी साहिबा के कमरे में गई। हाथ जोड़कर खबर दी।

रानी साहिबा ने हार पहना देने के लिए कहा। फिर दूसरी दासी से घंटे भर में भोजन ले आने के लिए कहा।

हार पहनाकर मुन्ना ने कहा, "रानीजी आ रही हैं। जूतियों की मधुर चटक सुन पड़ी। प्रभाकर ने देखा, एक सुश्री सुंदरी आ रही थीं।

 समझकर कि रानी हैं, उठकर खड़े हो गए। हाथ जोड़े। रानी साहिबा ने म्लान नमस्कार किया। अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गईं। मेहमानदारी के विचार से आँचल गले में डाल लिया था।

प्रभाकर की ऐसी कुर्सी थी कि सनलाइट का प्रकाश मुँह पर पड़ता था। रानी साहिबा मुँह देखकर बहुत खुशी हुई।

हवा के साथ बाहर के बागीचे से फूलों की खुशबू आ रही थी। उनके आने पर उस बैठक में पंखा चलने लगा।

"आपका शुभ नाम?" रानी ने पूछा।

"जी, मुझको प्रभाकर कहते हैं।"

"आप यहाँ हैं, हमको न मालूम था। कितने दिनों से हैं?"

"यह आप राजा साहब से..." प्रभाकर सहज लाज से झेंपे।

"आपका इधर राजा साहब के बँगले जाना नहीं हुआ?"

"जा चुका हूँ।"

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